बात सन् 2003 की है। मैंने ईटीवी (ईनाडू टेलीविजन, जो अब नेटवर्क 18 हो चुका है) की नौकरी छोड़कर सहारा न्यूज चैनल को ज्वाइन किया था। तबतक सहारा मीडिया के क्षेत्र में एक स्थापित नाम हो चुका था। सहारा पहली बार 24 घंटे का रीजनल चैनल शुरु करने का प्लान लेकर आया था। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तबतक ईटीवी ही न्यूज की दुनिया में छाया हुआ था। लेकिन ईटीवी मूल रुप से मनोरंजन चैनल था। इसमें बीच-बीच में न्यूज बुलेटिन प्रसारित होते थे। शाम सात बजे प्रसारित होने वाला बिहार-झारखंड बुलेटिन तबतक लोगों में खासा लोकप्रिय हो चुका था। शाम सात बजे पहले बिहार और फिर साढ़े सात बजे झारखंड की खबरें आती थी। अपने इन्हीं न्यूज बुलेटिन की जरुरत पूरा करने के लिए ईटीवी ने अपने पास पूरी न्यूज टीम खड़ी कर रखी थी। जब सहारा आया तो उसने पूरी ईटीवी की टीम अपने यहां बुला ली। ईटीवी के अधिकांश लोगों ने सहारा ज्वाइन कर लिया।
सहारा में मेरी पोस्टिंग बतौर रिपोर्टर गया ब्यूरो में हुई थी। हालांकि मेरा घर पटना में था। ऐसे में हर वीकली ऑफ के दिन पटना आना नियम-सा था। पटना से गया आने-जाने के लिए सबसे बड़ा सहारा बनती मेमू ट्रेन जो पटना-गया रेललाइन पर चलती थी। इसका लोकप्रिय नाम था पीजी लाइन। इस रेललाइन पर पटना से गया के बीच कई ट्रेनें चलती थी। हालांकि कुछ एक्सप्रेस ट्रेनें भी थीं, लेकिन ज्यादा संख्या पैसेंजर ट्रेनों की थी।
ये पैसेंजर ट्रेनें अमूमन दो से तीन घंटे के अंतराल पर चलती थीं। यानि अपनी सुविधानुसार आप किसी भी वक्त पैसेंजर पकड़ सकते थे। मेरे लिए रात की ट्रेन पकड़ना सुविधाजनक होता। ऑफिस का काम खत्म करके आराम से रात की ट्रेन पकड़ लेता। कई बार शाम सात बजे वाले बुलेटिन में किसी बड़ी खबर पर लाइव देना पड़ता। ऐसे में ऑफिस से निकलने में देर हो ही जाती थी। रात की ट्रेन दस बजे के करीब गया से खुलती थी। रात एक-डेढ़ बजे के करीब पटना पहुंचा देती। स्टेशन से मेरा घर बहुत दूर नहीं था। दो बजते-बजते मैं घर के अंदर होता। अगला पूरा दिन मुझे मिल जाता। ऑफ के दिन पटना में रुकता। दिन में अपने पेंडिग काम खत्म किए। फिर अगले दिन सुबह वाली ट्रेन पकड़ कर नौ बजे तक ऑफिस पहुंच जाता था। ऐसे में ये पैसेंजर ट्रेनें काफी काम की थीं।
पीजी लाइऩ की इन पैसेंजर ट्रेनों के किस्से बड़े निराले थे। भारतीय रेलवे का असली रंग देखने का मन अगर आपका होता तो पीजी लाइन आपका स्वागत करने को तैयार थी।
मैं जब गया पहुंचा तब मेमू ट्रेनें चलने लगी थी। मेमू (MEMU – Mainline Electric Multiple Unit) यानि बिजली से चलने वाली ट्रेनें। मेमू ट्रेनें इस मायने में अलग होती हैं कि इनमें इंजन अलग से नहीं लगाया जाता, वो एक तरह से ट्रेन में इन-बिल्ट होता है। इनके चलने से सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि पीजी लाइन पर जगह-जगह चेन-पुलिंग कर ट्रेन को रोकने की समस्या में बहुत कमी आयी। वरना पहले चलने वाली पैसेंजर ट्रेनों में यात्री अपनी मर्जी से ट्रेन को कहीं भी चेन-पुलिंग करके रोक देते थे। उस दौर के किस्से भी बड़े रोचक थे। पीजी लाइन पर मेरे साथ चलने वाले सहयात्री अक्सर ये किस्से सुनाते थे।
बिहार में पैसेंजर ट्रेन से चलने वाला आम आदमी भी ट्रेनों का पूरा इंजीनियर होता था। उसे ट्रेन को रोकना और चलाना दोनों आता था। दरअसल ट्रेनों का ब्रेकिंग सिस्टम अलग होता है। चलती कार को चलाने के लिए ड्राइवर को ब्रेक लगाने पड़ते हैं। जबकि ट्रेन में हर समय ब्रेक लगे रहते हैं। बस ट्रेन को चलाने के लिए हवा के प्रेशर से ब्रेक-शू को पहिए ये हटाया जाता है। जैसे ही ट्रेन को रोकना होता है तो प्रेशर पाइप से हवा के प्रेशर को रिलीज कर दिया जाता है। इससे ब्रेक-शू वापस पहिए से चिपक जाते हैं और ट्रेन रुक जाती है। किसी एक बोगी से चेन पुलिंग करने पर भी ब्रेकिंग सिस्टम अप्लाई हो जाता है। पूरी ट्रेन एक ही पाईप से जुड़ी होती है। हालांकि लोको पायलट चाहे तो ट्रेन को बिना रोके भी आगे बढ़ा सकता है। लेकिन डेली पैसेंजर को सारे दांव-पेंच पता होते थे। वो इस पाइप को ही निकाल देते थे। फिर ट्रेन को रुकना ही पड़ता था। इसके बाद वो इस पाइप को वापस जोड़ भी देते थे। जिससे दूसरे यात्रियों को ज्यादा असुविधा न हो और ट्रेन फिर चल पड़े। पीजी लाइन पर कुछ नियम अघोषित थे। लेकिन उनका पालन सब करते थे। मसलन पाइप निकाल कर ट्रेन रोक देना लोगों को स्वीकार था। लेकिन बिना पाइप वापस जोड़े चला जाना अपराध माना जाता था। ऐसे लौंडे-लफाटी आम पब्लिक से गालियां खाते और पकड़ में आ जाने पर लतिया भी दिए जाते थे। तो ऐसे ट्रेन बिना स्टॉपेज के भी जगह-जगह रुकती चलती।
उस वक्त पीजी लाइन के बारे में ये मशहूर था कि ट्रेन खुल भले ही टाईम से जाए, पहुंचेगी अपनी मर्जी से। तीन घंटे का सफर आठ-दस घंटे में पूरा होना मामूली बात थी। इसके दो कारण थे। पहला चेन-पुलिंग था। दूसरा था शंटिंग। दरअसल उस वक्त पटना-गया रेलमार्ग सिंगल ट्रैक था। तो ऐसे में एक्सप्रेस ट्रेनों को निकालने के लिए पैसेंजर ट्रेनों को रेलवे किसी भी स्टेशन पर शंटिंग पर डाल देता था। स्टेशन पर पैसेंजर ट्रेनें तब तक रुकी रहतीं, जब तक एक्सप्रेस ट्रेन को आगे नहीं निकाल दिया जाता।
पीजी लाइन पर चलने वाले लोग अमूमन टिकट लेने की भी जहमत नहीं उठाते थे। तब टिकट बहुत ही सस्ता होता था। जब मैंने चलना शुरु किया तब पटना से गया के बीच पैसेंजर ट्रेन का टिकट मात्र अठारह रुपये था। पहले तो और भी सस्ता था। लेकिन टिकट खरीदना ही शान के खिलाफ माना जाता था। लोग टिकट लेकर चलने वाले को बेवकूफ समझते थे। हालांकि मैं ये बेवकूफी जरुर करता था। दरअसल पीजी लाइन पर बेटिकट चलने में ही लोग शान बखारते थे। आम पुलिस पार्टी की तो खैर हिम्मत ही नहीं होती कि वो इन लोकल पैसेंजरों को कुछ कहे। कभी-कभार जब रेलवे, स्पेशल पुलिस पार्टी के साथ चेकिंग ड्राइव चलाती तभी इन पर थोड़ा असर होता। ऐसे में लोग ट्रेन रोक कर भागते नजर आते। वो नजारा भी खूब होता। अचानक हल्ला होता – “चेकिंग हो रही है।“ ट्रेन रुकती। लोग दौड़ लगा देते। लोगों का हुजूम खेतों में सरपट दौड़ते नजर आता। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि मालूम चलता कि चेकिंग नहीं हो रही है। यूंही अफवाह उड़ गयी है। ऐसे में लोग अफवाह उड़ाने वाले को गरियाते हुए वापस भी लौट आते।
पैसेंजर ट्रेनों के कई किस्से सहयात्री मुझे सुनाते थे। अक्सर ये किस्से अतिश्योक्ति अलंकार में सुनाए जाते। इससे सफर मजेदार तरीके से कट जाता। लेकिन इन किस्सों में उस दौर का बयाने-हाल तो छिपा ही होता।
ये पैसेंजर ट्रेन थीं तो इसके स्टेशन और हॉल्ट भी ज्यादा थे। लेकिन पीजी लाइन में लोग हॉल्ट या स्टेशन पर उतरना अपनी शान में कोताही समझते थे। वो सीधे अपने गांव में ही ट्रेन रोकते। गांव-गांव ट्रेन रुकते चलती तो फिर भी शराफत होती। ट्रेन तो टोले-टोले रुकती थी। ट्रेन के रुकने पर अगर किसी को लगता कि यहां से तो पांच सौ कदम चलना पड़ेगा, तो वो वहां नहीं उतरता। दो मिनट बाद ही ट्रेन को फिर रोका जाता। ये जगह उसके लिए मुफीद होती, क्योकि उसके घर की दूरी यहां से सौ कदम ही होती। अब इतनी सुविधा की सवारी भला कौन छोड़ना चाहेगा।
ट्रेन कहां, कितनी देर रुकेगी, ये कई बार इलाके की दबंगई पर भी निर्भर करता। मसलन किसी घर से बेटी-दामाद की विदाई होनी है, तो ऐसे में मेहमान जी को ट्रेन का इंतजार कराना पूरा इलाका अपनी शान के खिलाफ समझता। कुछ लोग घर से दौड़ कर पहले ट्रेन रुकवा लेते। फिर एक आदमी संदेश लेकर वापस घर आता – ‘मेहमान जी, चलिए। ट्रेन आ गयी है।‘ फिर धीरे-धीरे मेहमान जी उठते। सभी रस्में निभाते-निभाते वो ट्रेन पकड़ने चलते। ट्रेन में बैठे लोग दूर से आते विदाई गीतों से अंदाजा लगाते कि अभी कितनी देर और लगेगी। गीतों की आवाज धीरे-धीरे नजदीक आती। जैसे किसी बारात के गुजरते वक्त आस-पास गुजरते लोग भी एक नजर दूल्हे को जरुर देखते हैं, ऐसे ही पूरी ट्रेन दूल्हे को एक नजर देख लेने के लिए लालायित रहती। दुल्हन तो खैर लंबे घूंघट में ही होती। कुछ रस्में ट्रेन में भी निभायी जातीं। तब कहीं जाकर ट्रेन आगे बढ़ती।
कई बार ट्रेन के थोड़ा ज्यादा देर रुक जाने के पीछे कुछ प्राकृतिक कारण भी होते। जैसे किसी को ट्रेन पकड़ने के समय ही ‘नेचर कॉल’ ने बुलावा भेज दिया हो। अब ऐसे जरुरी काम को तो रोका नहीं जा सकता। तो जनाब लोटा लेकर मैदान की ओर निकल लेते। अपने संगी-साथियों को हिदायत दे जाते उनका इंतजार करने का। अब ट्रेन रुकी रहती और उनका इंतजार होता रहता। धीरे-धीरे ये खबर आस-पास की बोगियों में भी फैल जाती कि फलाना बाबू मैदान गए हुए हैं। ऐसे में लोग बस यहीं दुआ मांगते कि मैदान जाने वाले को कब्ज की बीमारी न हो। घड़ी की सुईयां धीरे-धीरे सरकती जातीं। देर होते देख कुछ लोग अपना भी निपटान कर आते। फिर कुछ समय बाद मैदान जाने वाला लोटा लिए धीरे-धीरे आता दिखता। ऐसे में साथ के लोगों को उसकी नवाबी चाल से जरुर परेशानी होती। अचानक उनका पब्लिक सेंस जाग उठता। देखिए लोग इंतजार कर रहे हैं और बाबू साहब धीरे-धीरे खिसक रहे हैं। कोई बुजुर्ग नुमा व्यक्ति हांक लगाता। आवाज सुनते ही, एक हाथ में लोटा, दूसरे से पजामे का नाड़ा संभालता आदमी गिरते-पड़ते ट्रेन की ओर भागता। इस पूरे कार्यक्रम की समाप्ति के बाद ही ट्रेन आगे बढ़ पाती।
खैर जब मैनें चलना शुरु किया तब ये जगह-जगह रुकने वाली समस्या तो इतनी नहीं रह गयी थी। लेकिन पीजी लाइन से रात में चलना तब भी काफी हिम्मत का काम माना जाता था। दरअसल ये पूरा इलाका अपराध ग्रस्त था। नक्सली हिंसा से भी प्रभावित था। पीजी लाइन पर पड़ने वाले कई स्टेशनों पर नक्सली हमले हो चुके थे। जहानाबाद भी इसी लाइन पर पड़ता था, जहां का जेल ब्रेक कांड आज लोगों को वेब-सीरीज की सामग्री उपलब्ध कराता है। जहानाबाद में 13 नवंबर 2005 की रात सैकड़ों नक्सलियों ने हमला बोल दिया था। पूरी सरकारी मशीनरी पंगु साबित हुई थी। नक्सलियों ने जेल पर हमला बोल कर 389 नक्सलियों को जेल से छुड़ा लिया था। पूरा शहर नक्सलियों के कब्जे में घंटों रहा। पुलिस और प्रशासन सिर्फ तमाशा देखते रह गए। ऐसी जगह पर साथ चल रहा कौन-सा पैसेंजर कुख्यात नक्सली है, ये अंदाजा आप नहीं लगा सकते थे।
इस रुट पर दबंगई भी खूब चलती थी। पैसेजर में आपस में मारपीट होना सामान्य-सी बात थी। मुझे याद है गया ब्यूरो ज्वाइन करने के बाद मेरी पहली खबर जो नेशनल चैनल पर चली थी, वो भी इसी पैसेंजर ट्रेन से जुड़ी थी। गया के पास चाकंद स्टेशन पर पैसेंजर ट्रेन में दो यात्रियों में झड़प बढ़ी और एक ने दूसरे को गोली मार दी। मरने वाला स्थानीय था। विरोध में स्थानीय लोगों ने ट्रेन रोक दी। हमने इसी घटना को कवर किया था। घटना रात की ही थी। हमलोग करीब बारह बजे तक घटनास्थल पर पहुंच पाए थे। एक टीवी रिपोर्टर के तौर पर पहली चीज मैंने यहीं सीखी थी। मौके पर सबसे पहले पहुंचना ही एक रिपोर्टर के लिए सबसे बड़ा चैलेंज होता है। बाकी सारी बातें उसके बाद आती हैं। खबर को सबसे पहले दिखाने की होड़ सभी चैनलों में रहती है। मौके पर पहुंचने के बाद, उस घटना को कवर करने के लिए एक बाइट प्रत्य़क्षदर्शी की ली गई थी। एक बाइट घटना पर मौजूद स्थानीय थाना इंचार्ज की। अगले दिन ये खबर नेशनल चैनल पर प्रसारित हुई।
तो इस माहौल में रात की पैसेंजर ट्रेन से चलना लोग आमतौर पर पसंद नहीं करते थे। लेकिन मुझ जैसे लोग ट्रेन में दिख ही जाते थे।रिपोर्टिंग वैसे भी आपको डर को पीछे छोड़ साहस को अपनाने का गुर सिखाती है। दूसरी बात ये कि रिपोर्टिंग के दौरान एक नुस्खा मैंने सीखा था – ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए ये दोनों बातें जरुरी थीं – आप किसी से डरे नहीं और किसी के पक्षकार नहीं बनें। यहीं नुस्खा मैं आम जीवन में भी अपनाता था। इसलिए मुझे कभी ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। मुझे इसका फायदा ही मिला।
रात को मेरे चलने के पीछे एक कारण तो मेरे साथ समय की बाध्यता थी। कुछ और कारण भी थे। रात के सफर के लिए ट्रेन का रुट सड़क मार्ग के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित था। एक और कारण था। पीजी लाइन पर पैसेंजर ट्रेनें दिन में खचाखच भरी होती थीं। तीन लोगों की सीट पर पांच-पांच लोग बैठ कर जाते थे। कई बार तो ऐसी हालत होती थी कि खड़े होने की भी जगह नहीं मिलती थी। इन ट्रेनों में चढ़ना-उतरना किसी जंग जीतने से कम नहीं होता था। लेकिन रात में नजारा दूसरा होता था। रात दस बजे के बाद ट्रेन में गिनती के लोग दिखते थे। कई बोगी तो पूरी तरह खाली जातीं। रात के मुसाफिर किसी अनकहे समझौते की तरह धीरे-धीरे उसी बोगी में आ जाते, जहां पहले से कुछ लोग होते थे। एक बर्थ पर एक ही मुसाफिर होता। जैसे सबने अपनी-अपनी बर्थ रिजर्व कर ली हुई हो। आप आराम से सोते हुए यात्रा कर सकते थे। मैं भी अपनी एक नींद ट्रेन में ही पूरी कर लेता था।
तब कई बार रात में डीजल से चलने वाली ट्रेनें (DEMU) भी चलती थी। रात में इन ट्रेनों में एक और गजब की बात होती थी। अक्सर पूरे ट्रेन की ही बिजली गुल हो जाती थी। पूरी ट्रेन घुप अंधेरे में डूब जाती थी। ऐसे में आपके मोबाइल की रोशनी ही आपके काम आती थी। मोबाइल भी तब तक उतने कॉमन नहीं हुए थे। लोग अपने साथ बड़ी वाली टार्च भी लेकर चलते थे। टार्च की रोशनी किसी तीर की तरह अंधेरे को काटती थी। और जब एक साथ कई टार्च जल जाती थी तो लगता जैसे अंधेरे में कोई तीरंदाजी प्रतियोगिता हो रही है।
बोगी में रोशनी की एक और परमानेंट व्यवस्था होती थी। वो रोशनी आती थी- ट्रेन में मूंगफली बेचने वालों की टोकरी से। अपनी टोकरी को रस्सी से दोनों तरफ से बांधकर उसे अपने गले में लटका लेते थे। इसी टोकरी में मूंगफली के बीच वो अपनी ढिबरी को अच्छे से दबाकर वो इसतरह लगा लेते थे, उनके चलने-फिरने से भी वो गिरती नहीं थी। यहीं उनके लिए लैंप का काम करती थी। दो सौ ग्राम वाली किसी छोटी बोतल के ढक्कन को छेद कर वो इसमें बत्ती डाल देते थे। बोतल में किरासन तेल रहता। इसी बोतल को ये ढिबरी बोलते थे।
ये मूंगफली वाले इन पैंसेजर ट्रेनों में बहुतायत से चलते थे। इनकी अच्छी बिक्री होती थी। आम भाषा में मूंगफली को चिनिया बादाम बोला जाता। चिनिया बादाम खाकर यात्री अक्सर इनके छिलकों को बाहर फेंकने की जहमत नहीं उठाते। धीरे से इन्हें सीट के नीचे खिसका दिया जाता। जब ट्रेन की सफाई होती तो किलो के भाव से ये छिलके ट्रेन से निकलते।
दिन में को कई तरह के वेंडर ट्रेनों में दिखते थे, लेकिन रात में ज्यादातर चिनिया बादाम और चनाचूर बेचने वाले ही चलते थे। तो जब ट्रेन में घुप्प अंधेरा छाया रहता। इनकी ढिबरी से आती रोशनी बड़े काम आती। जैसे किसी बाग में रात के अंधेरे में जुगनू चमकते हैं, उसी तरह अंधेरे में इनकी ढिबरी की लौ टिमटिमाती नजर आती। कई बार तो इनकी ही रौशनी में सफर कट जाता था।
पीजी लाइन पर चलने वाले ज्यादातर यात्री इस अंधेरे के अभ्यस्त हो चुके थे। स्टेशन आने पर अक्सर स्टेशन की रोशनी छन कर ट्रेन के अंदर आती थी। या फिर टार्च और मोबाइल की रोशनी में लोग अपना काम चला लेते थे। मामला सिर्फ एक जगह ही कभी-कभार फंसता। मान लीजिए, किसी स्टेशन पर आप चढ़े। अंधेरे में खाली सीट ढ़ूंढ-ढ़ाड़ कर आप बैठने लगे। इतने में आपका पैर किसी यात्री से टकरा गया। आपको लगा कि कोई बहुत थका-हारा व्यक्ति जमीन पर ही सो गया है। आप शराफत दिखाते हुए उससे कहते हैं – “माफ कीजिएगा भाई साहब।“ जवाब लेकिन सामने बैठे यात्री देते – “टेंशन मत लीजिए, सॉरी की जरुरत नहीं है इनको। हर दिक्कत-परेशानी से दूर जा चुके हैं ये। आज ही देहांत हुआ है इनका। पटना ले जा रहे हैं इनको। गंगाजी में अंतिम संस्कार कराने।“ जरा सोचिए सॉरी के बदले ये जवाब आपको मिले तो किसी अंजान आदमी का क्या हाल होगा।
जी हां, रात की पैसेंजर ट्रेन में अक्सर लाशें भी सहयात्री होतीं। मगध क्षेत्र में किसी के मरने पर अक्सर उसका क्रियाक्रम करने के लिए लोग उन शहरों की ओर जाते है, जहां गंगा जी बहती हैं। हालांकि गया खुद पुण्यदायिनी फल्गू नदी के तट पर बसा है। इसकी गिनती सबसे बड़े हिन्दू तीर्थों में होती हैं। अपने पितरों के पिंडदान और तर्पण के लिए न सिर्फ देश बल्कि विदेशों से भी लोग यहां आते हैं। खासकर पितृपक्ष में तो यहां पिंडदान करने लाखों लोग पहुंचते हैं। लेकिन गया की महत्ता पिंडदान के लिए हैं। अंतिम संस्कार के लिए लोग गंगाजी के घाट पर जाना ज्यादा बेहतर मानते हैं। इसलिए बनारस और पटना से सटे इलाके के लोग इन्हीं शहरों का रुख करते हैं। औरंगाबाद, सासाराम का इलाका बनारस के नजदीक पड़ता है। वहां से लोग बनारस जाते हैं। वहीं जहानाबाद और इसके आस-पास के इलाके के लोग पटना का रुख करते हैं। जो संपन्न होते वो गाड़ी या एंबुलेंस से जाते। इसमें काफी खर्च होता। जो इस खर्च को वहन नहीं कर सकते थे, वो ट्रेन से ही ये सफर पूरा करते। अब दिन में लाश लेकर ट्रेन में चला नहीं जा सकता था। ट्रेन में भीड़ भी बहुत होती थी। रात के सफर में ट्रेन खाली मिलती थी। गया से चलने वाली ये ट्रेन सीधे पटना जाती। बीच में हर छोटे-बड़े स्टेशन और हॉल्ट पर रुकती। तो बीच के ग्रामीण इलाके के लोग अक्सर अर्थी के साथ ट्रेन में सवार हो जाते थे। रात के अंधेरे में किसी हॉल्ट पर जब ट्रेन रुकती, तो अचानक राम नाम की आवाज गूंजने लगती। शोर-शराबा बढ़ जाता। फिर दस-बारह लोगों का हुजूम अर्थी के साथ ट्रेन में सवार हो जाता। खाली जगह देख कर अर्थी रख दी जाती। सीटों पर साथ आए लोग बैठ जाते। कोई इक्का-दुक्का यात्री अगर वहां होता तो चुपचाप अपनी सीट से उठकर थोड़ा आगे जाकर बैठ जाता। फिर वैसी ही शांति छा जाती है। ट्रेन अपनी गति से आगे दौड़ पड़ती। आते-जाते अगर गलती से कोई अर्थी से टकरा जाता, तो उसे टोक दिया जाता। वो भी इसे अपनी गलती समझ, हाथ जोड़ कर आगे बढ़ जाता। अर्थी लेकर चलने वाले ये लोग पटना जंक्शन तक नहीं जाते। अक्सर पटना से पहले पड़ने वाले मसौढ़ी में उतर जाते। मसौढ़ी में भी गंगा जी बहती हैं। या फिर पटना आने से थोड़ी देर पहले किसी हॉल्ट या कहीं शंटिंग पर उतर जाते। पीजी लाइन पर रात में चलने वाले लोग भी अमूमन इस दृश्य के अभ्यस्त होते।
रात का सफर जहां शांति से कटता। वहीं दिन के सफर में हंगामा रहता। हालांकि ट्रेन पटना से ही खुलती थी। लेकिन प्लेटफार्म पर इतनी भीड़ होती कि ट्रेन पर चढ़ना बहुत मुश्किल काम होता। जो बैठने की जगह हासिल कर पाता, उसे किसी जंग जीतने जैसा गर्व अनुभव होता। सीट हथियाने के भी कई फार्मूले थे। कुछ लोग ट्रेन आने से पहले प्लेटफार्म से उतर कर पटरी के दूसरी तरफ जाकर खड़े हो जाते। ट्रेन जब प्लेटफार्म पर लगती, तो अंदर के भीड़ प्लेटफार्म पर उतरती। उसी में लोग जबरदस्ती चढ़ने भी लगते। धक्का-मुक्की शुरु हो जाती। इस बीच पटरी के दूसरी तरफ गए लोग, ट्रेन में चढ़ कर सीट हासिल कर लेते। ये तरीका खतरनाक जरुर था, लेकिन बहुत सफल माना जाता था। खासकर जब कोई फैमिली सफर करती थी तो परिवार का कोई नौजवान ये खतरा उठा कर ट्रेन में घुस जाता और अपने साथ पूरे परिवार की सीट सुरक्षित कर लेता। कुछ लोग स्मार्ट वर्क पर यकीन करते। खासकर जब दो लोग होते। वो प्लेटफार्म से ही सीट पर अपना रुमाल या गमछा रख देते। साथ का एक व्यक्ति ट्रेन पर चढ़कर सीट तक पहुंचने की जल्दी दिखाता। उधर दूसरा व्यक्ति वहीं खड़ा हो कर लोगों को सीट पर नहीं बैठने की हिदायत देता रहता। आमतौर पर सीट पर रुमाल या गमछा रख देना, सीट रिजर्व कर लेने की गारंटी होता। लेकिन कभी-कभार सामने कोई मजबूत पार्टी होती तो वो इस व्यवस्था को मानने से साफ इंकार कर देती। कोई चुटकुला नुमा डॉयलॉग सामने वाले को चिपका दिया जाता – “ताजमहल पर रुमाल रख दीजिएगा, तो ताजमहल आपका हो जाएगा क्या?” इस मुद्दे पर कभी-कभार झगड़ा बढ़ जाता। लेकिन फिर आसपास के लोग मिलकर मामले को सुलझा देते। पीजी लाइन की एक खास बात मैनें नोटिस की थी। कहें तो ये सारे इलाके पर लागू होती थी। बहस और झगड़े के दौरान लोग अक्सर एक-दूसरे की ताकत तौल लेते। फिर कोई एक पार्टी धीरे-से पीछे हट जाती। इसलिए ऊपर से देखने पर जितना शोरशराबा दिखता। अंदर पैठ जाने पर उतनी ही शांति होती।
जिनको सीट की जल्दी नहीं होती थी, वो इतनी मगजमारी नहीं करते। आमतौर पर सबको ही भीड़ में घुसपैठ करने का तरीका मालूम होता। भीड़ के साथ खड़े हो जाइए। बस अपने कदमों को साधे रहिए। भीड़ का एक रेला आएगा और आप खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाइएगा। आपको कुछ नहीं करना होगा। आप खुद ट्रेन के अंदर पहुंच जाइएगा। पीजी लाइन ने जिन्दगी का पाठ पढ़ा दिया था। किसी समस्या को आप जब बाहर से देखेंगे तो वो ऐसे ही भयावह दिखेगी। आप हिम्मत कर उसमें कूद जाइए। कुछ ना कुछ रास्ता खुद निकल आएगा। सारी दिक्कत अंदर घुसने तक की होती। आप अंदर आ जाते है तो बाकी समस्या अपने-आप दूर होने लगती है। हॉल्ट और स्टेशन आते, लोग उतरते जाते। धीरे-धीरे खड़े हुए सारे लोगों को बैठने की जगह मिल जाती है। हालांकि भीड़ कम नहीं होती। जो लोग खड़े होते, वो बैठ जाते। खड़े होने के लिए फिर नए लोग आ जाते।
पीजी लाइन पर चलने वालों लोगों का अब जरा नवाबी अंदाज देखिए। पैदल कौन ट्रेन तक जाए? तो लोग-बाग साइकिल की घंटी तक बजाते ट्रेन के दरवाजे तक पहुंच जाते। फिर साइकिल के साथ ही वो अपना सफर पूरा करते। हालांकि इसमें पूरा साइंस लगता। साइकिल को ऊपर करके उसके दोनों पैडल बोगी की खिड़की में फंसा दिए जाते। डिग्रीधारी इंजीनियर भी जिस काम में फेल हो जाएं, उसे ये डेली पैसेंजर चुटकियों में कर देते थे। साइकिल को इस तरह फंसाया जाता कि आंधी-तूफान आ जाए, क्या मजाल जो साइकिल का संतुलन बिगड़ जाए। मैनें कभी किसी साइकिल को गिरते नहीं देखा। साइकिल वाला अपनी मंजिल पर ठाठ से नीचे उतरता। अपनी साइकिल उतारता। फिर आराम से साइकिल चलाता हुए अपने गंतव्य की ओर रवाना हो जाता।
लोग-बाग हर तरह का सामान पैसेंजर ट्रेन में लेकर जा सकते थे। जो सामान आप एक्सप्रेस ट्रेन में नहीं लाद सकते थे। वो पैसेंजर में लेकर आ जाइए। इसे लोग घर की ट्रेन मानते थे। अब घर में आपको कौन रोकने-टोकने वाला है। सब्जी बेचने वाले इसी ट्रेन में अपने सब्जी के बोरे ढो लेते थे। यहां तक कि पुआल के बड़े-बड़े गट्ठर भी इनमें लाद दिए जाते थे। इन्हें बोझा कहा जाता था। जीआरपी की पूरी नजर इनपर रहती थी। लेकिन इन्हें वो अपने दैनिक खर्च को निकालने का जरिया समझते। जीआरपी के सिपाही दिखते। बोझा ढोने वाले चुपचाप निर्धारित रकम थमा देते। कभी-कभार जब बोझा ज्यादा बड़ा होता तब इनकी बहस सिपाहियों से हो जाया करती। खासकर जब बोझा के साथ महिलाएं होतीं। ऐसे कभीकभार के मौकों से ही आम आदमी को ये गड़बड़झाला समझ में आता। वर्ना सब कुछ शांति से चलता रहता।
पीजी लाइन पर आपको खाने-पीने की कमी नहीं हो सकती थी। इस रुट पर वेंडरों की लगातार आवाजाही रहती थी। खाने-पीने के सामान के साथ-साथ गुटखा और सिगरेट भी बे-रोकटोक बिकते थे। मूंगफली, चनाचूर, मसालेदार चना, हाथ के पंखे के साइज का पापड़ के साथ-साथ रसगुल्ला और गुलाबजामुन भी मिलते थे। यहां मिलने वाला लाई का लड्डू जिसे रामदाना लाई कहा जाता है भी लोगों को खूब भाता था। लेकिन पीजी लाइन पर आप चल रहे हो, और रास्ते में मिलने वाले समोसे का आनंद आपने नहीं लिया, तो आप क्या खाक पीजी लाइन पर चले। इसे समोसा की बजाए समोसी कहना ज्यादा उचित होगा। इनका साइज काफी छोटा होता था। कुछ वेंडर दस के तीन देते थे। कुछ दस रुपये के चार समोसे देते थे। इनका साइज भले ही छोटा हो, स्वाद अनूठा होता था। इनकी खासियत थी, इनके अंदर भरा जाने वाला आलू। इनमें जो स्थानीय मसाला पड़ता था, उसका स्वाद इसे सब से अलग बनाता था। इसके साथ ही ये समोसे बहुत ही कुरमुरे और खास्ता होते थे। इन समोसों का असली स्वाद सुबह वाली ट्रेन में ही आता। उस वक्त सारे वेंडर गरम-गरम समोसे तल कर बेचना शुरु करते। समोसे बिल्कुल ताजा होते। जैसे-जैसे दिन ढ़लता वो स्वाद गायब होने लगता। लेकिन इन समोसे का असली स्वाद लेने के लिए आपकी नजर पारखी होनी चाहिए थी। दरअसल इन्हें समोसों को बनाने वाले बहुतायत में इन्हें तल कर रख लेते थे। जब समोसे ठंडे होने लगते तो वो इन्हें फिर तल लेते। कभी-कभी तो इन्हें कई बार तला जाता। ऐसे में इनका स्वाद खराब हो जाता। ऐसे में इन्हें लेने से पहले पारखी नजर से इन्हें जांचना होता। ज्यादा बार तले गए समोसों पर तेल की चमक ज्यादा होती। साथ ही इनका रंग भी ज्याद भूरा होता। ऐसे में पारखी नजर वाले इनसे किनारा कर लेते। क्योकि एक बार ले लेने के बाद इन्हें वापस करने का कोई चांस नहीं होता। इन्हें बेचने वाले कम हाजिजवाब नहीं थे। कभी ऐसा ही कोई खराब स्वाद वाला समोसा आपके मुंह में चला जाता और आप शिकायत करते – “ दो दिन पहले तुम्हारा समोसा खाए थे जी। उसका स्वाद बड़ा अच्छा था। इसका स्वाद ऐसा क्यों हैं?“ जवाब मिलता – “क्या बात कर रहे हैं भईया, उसी दिन वाले समोसे तो हैं। आपके मुंह का स्वाद लगता है बिगड़ गया है।“ आप बस खिसियाया हुआ मुंह लेकर रह जाते थे।
ऐसे ही खट्टे-मीठे अनुभव के साथ पीजी लाइन का सफर चलता रहता था।
- अमित शर्मा