अमेजन प्राइम पर वर्ल्डवाइड रिलीज हुई फिल्म ‘सरदार उधम’ देशभक्ति की आम बॉलीवुड फिल्मों की श्रेणी से अलग नजर आती है। फिल्म में देशभक्ति को बॉलीवुड फिल्मों के एक मसाले के तौर पर इस्तेमाल करने से परहेज किया गया है। फिल्म देखते वक्त न तो आपकी रगों का खून उबलेगा और न ही जबरदस्ती का जोश दिमाग पर चढ़ कर बोलेगा। फिर भी फिल्म धीरे से आपके दिल और दिमाग के भीतर उतर जाएगी। लेकिन वैसे दर्शक जिनको बॉलीवुड स्टाइल की देशभक्ति देखने की आदत है, फिल्म से जरुर निराश होंगे।
फिल्म एक बायोपिक है और निर्देशक सुजीत सरकार अपने उद्देश्य के प्रति पूरी तरह सजग और समर्पित नजर आते हैं। फिल्म सरदार उधम सिंह के जीवन की कहानी है। सरदार उधम सिंह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अनसंग हीरो भी कहा जा सकता है। आज भी उनके बारे में आम लोग बहुत कम जानते हैं। हमारे स्कूल-कॉलेजों में उनके बारे में बहुत ही कम पढ़ाया जाता है। इतिहास की किताबें भी उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं देती। सुजीत सरकार की ‘सरदार उधम’ उनके बारे में इसी गैप को पूरा करती दिखती है। फिल्म बनाने से पहले काफी रिसर्च की गयी है। फिल्म में हर घटना को उसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता और तथ्यों के साथ पेश करने की कोशिश की गयी है।
सरदार उधम सिंह ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे सर माइकल ड्वॉयर की सन् 1940 में लंदन में गोली मारकर हत्या कर दी थी। माइकल ड्वॉयर ने जलियांवाला बाग नरसंहार को अंजाम देने वाले जनरल डायर का सीनियर अधिकारी होने के नाते उनपर कार्रवाई करने से इंकार कर दिया था और साथ ही जनरल डायर के क्रूरतापूर्ण कार्य को सही ठहराया था। जलियांवाला बाग नरसंहार को आज भी पूरी मानवाता के लिए कलंक माना जाता है। अंग्रेज सरकार की एक आधिकारिक रिपोर्ट में इस घटना में 379 लोगों की मौत की बात मानी गयी थी लेकिन माना जाता है कि अंग्रेजी सरकार की गोलियों से उस दिन मरने वालों की संख्या 1800 से भी ज्यादा थी। सरदार उधम सिंह ने इस त्रासदी को अपनी आंखों के सामने देखा था। उन्होंने इसी त्रासदी के जिम्मेदार रहे माइकल ड्वॉयर की हत्या घटना के 21 साल बाद की। जो इतिहास के छात्र नहीं रहे है वो इस बात पर भी भ्रमित होते हैं कि सरदार उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की घटना में मौके पर गोली चलाने का आदेश देने वाले जनरल डायर को मारा था। जबकि जनरल डायर की 1928 में स्वभाविक मौत हुई थी। उधम सिंह ने घटना के वक्त पंजाब के मुख्य अधिकारी रहे लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ड्वॉयर की हत्या की थी। ये भ्रम अक्सर इस लिए भी होता है कि दोनों के नाम में समानता थी। मगर इस भ्रम का बड़ा कारण ये भी है कि सरदार उधम सिंह को सिर्फ जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लेने वाले क्रांतिकारी के तौर पर पेश किया गया। जबकि उनका उद्देश्य इससे कहीं बड़ा था। फिल्म इसी बात की पड़ताल करने की कोशिश करती है कि क्या उधम सिंह का मकसद सिर्फ बदला लेना था या वो इससे बड़े उद्देश्य के लिए कार्य कर रहे थे।
सरदार उधम सिंह के बारे में दरअसल दस्तावेजों से जानकारी ज्यादा नहीं मिल पाती है। ऐसे में उनकी जीवन की छूटी हुई कड़ियों को जोड़ना निर्देशक के लिए एक बड़ी चुनौती थी। सरदार उधम सिंह की मानसिक स्थिति और उनकी संवेदनाओं को दिखाने के लिए जरुर सुजीत सरकार ने थोड़ी निर्देशकीय स्वतंत्रता का सहारा लिया है मगर वो भी ऐतिहासिक तथ्यों की परिधि के भीतर ही है। सुजीत सरकार इससे पहले विकी डोनर, मद्रास कैफे, पीकू, पिंक, अक्टूबर और गुलाबो-सिताबो जैसी फिल्मों से मानवीय संवेदनाओं को पर्दे पर पेश करने की अपनी क्षमता दिखा चुके हैं। मगर इस बार उनकी चुनौती कहीं ज्यादा बड़ी थी। सुजीत सरकार ने खुद इसे अपना ड्रीम प्रोजेक्ट कहा है। फिल्म कही भी उधम सिंह को लार्जर दैन लाइफ दिखाने की कोशिश नहीं करती। दरअसल सुजीत सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी भी यहीं रही कि वो ये दिखाने में सफल रहे है कि कोई भी आम देशवासी अपने अंदर एक उधम सिंह को पैदा कर सकता है।
विकी कौशल के कंधों पर इस बार एक बड़ी जिम्मेदारी थी जिसे उन्होंने सफलता से निभाया है। हालांकि इस फिल्म के लिए निर्देशक की पहली पसंद इरफान थे और ऐसे में कई बार ये ख्याल जरुर आता है कि अगर इरफान इस भूमिका को निभाते तो क्या ज्यादा असरदार होते। लेकिन विकी कौशल ने भी कहीं भी निर्देशक को निराश नहीं किया है। बीस साल से लेकर चालीस साल तक के उधम सिंह की भूमिका निभाने के लिए उन्होंने पूरी मेहनत की है। सरदार उधम सिंह ने अपने जीवन का ज्यादातर समय देश से बाहर रहकर बिताया और विदेशी धरती से ही क्रांति का अलख जलाते रहे। फिल्म की भी ज्यादातर शूटिंग विदेश में हुई है और इससे फिल्म की प्रमाणिकता बढ़ती है।
एक बड़ी कमी जो दिखती है वो ये कि फिल्म कई बार जरुरत से ज्यादा धीमी हो जाती है। फिल्म की अवधि थोड़ी कम रहती तो शायद फिल्म की पकड़ दर्शकों पर ज्यादा मजबूत होती। हॉलीवुड की मशहूर फिल्म ‘शॉशांक रिडंपशन’ जिस तरह अपनी गति धीमी रखकर जेल में ठहरे हुए वक्त के दर्द को दर्शकों के दिमाग तक उतारने में सफल रहती है वैसी कुशलता दिखाने में सुजीत सरकार चूक गए हैं। फिल्म की लंबाई बढ़ाने के पीछे सुजीत सरकार का भी मकसद शायद उस लंबी अवधि के दर्द को महसूस करवाना हो जो दर्द सरदार उधम सिंह 21 सालों तक महसूस करते रहे। मगर जिस तरह फिल्म फ्लैशबैक के साथ साथ आगे बढ़ती है, उसमें ये प्रयोग चूका हुआ ही नजर आता है। जलियांवाला बाग नरसंहार की विभत्सता दिखाने के लिए निर्देशक ने पूरी घटना को समझबूझ कर जरुरत से ज्यादा लंबा फिल्माया है। मगर इस दौरान कई दृश्य अपनी विभत्सता से काफी विचलित भी करते हैं। रिचर्ड एटनबेरो की फिल्म गांधी का भी दृश्य दिमाग में आता है जो फिल्म तकनीक के इतने विकास के बाद भी जलियांवाला बाग नरसंहार को दिखाने में आज भी उतना ही प्रभावी है।
सरदार उधम को पहले बड़े पर्दे पर ही रिलीज करने की योजना थी। लेकिन कोरोना की वजह से ऐसा नहीं हो पाया। ऐसे में इसे अमेजन प्राइम के ओटीटी प्लेटफार्म पर वर्ल्डवाइड रिलीज किया गया। ये शायद फिल्म के लिए अच्छा ही हुआ। फिल्म बॉलीवुड के प्रचलित फार्मूलों से कोसों दूर है। इसे सही दर्शक वर्ग शायद ओटीटी प्लेटफार्म पर ही मिल सकता था। आईएमबीडी से फिल्म को 9.2 की रेटिंग मिल गयी है।
–अमित शर्मा.